मातृभाषा पर चिंता क्यों? मोहन भागवत के एक प्रश्न ने सोचने पर मजबूर किया

नई दिल्ली 
आरएसएस चीफ मोहन भागवत ने मातृ भाषाओं के इस्तेमाल पर चिंता जताते हुए कहा कि बहुत सारे ऐसे भी भारतीय हैं जिन्हें अपनी भाषा ही नहीं आती है। नागपुर में एक पुस्तक के विमोचन के मौके पर उन्होने कहा कि हमारी भाषायी विरासत का क्षय हो रहा है। भागवत ने कहा, एक समय था जब रोजामर्रा के जीवन में सारा संचार संस्कृत में होता था। अब हाल यह है कि अमेरिका के प्रोफेसर हमें संस्कृत पढ़ाते हैं। उन्होंने कहा कि भाषायी चेतना को लेकर हमें आत्ममंथन करने की जरूरत है।
 
भागवत ने कहा कि बहुत सारे बच्चे आज अपनी ही भाषा के शब्द नहीं जानते हैं और वे अंग्रेजी का मिश्रण करके भाषा का इस्तेमाल करते हैं। उन्होंने कहा, मैं अंग्रेजी माध्यम वाली शिक्षा को दोष नहीं दे रहा हूं लेकिन कम से कम अपनी भाषा को भी तो जानना चाहिए। अगर हम अपने घरों में भी अपनी भाषा बोलें तो भी हमें उसके बारे में पूरी जानकारी हो जाएगी। उन्होंने कहा कि संत ज्ञानेश्वर ने भगवद्गीता को मराठी में प्रचारित किया।

भागवत ने कहा, दिक्कत यह है कि अंग्रेजी के शब्द भावों की गहराई को पकड़ नहीं पाते हैं और ऐसे में विचारों का प्रकटीकरण कमजोर पड़ जाता है। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि कल्पवृक्ष के लिए अंग्रेजी में तरह-तरह के शब्द लिखे जाते हैं लेकिन कोई भी शब्द उसका असली अर्थ नहीं बता सकता है। आप इसे अंग्रेजी में कैसे अनुवादित करेंगे। ऐसे में विदेशी भाषाएं हमारी संस्कृति की गहराई तक नहीं पहुंच सकती हैं। उन्होंने कहा कि भारतीय भाषाओं को सीखने और मजबूत करने की जरूरत है। भागवत ने कहा कि भारत का दर्शन कहता है कि विविधता में भी एकता होनी चाहिए।

एक दिन पहले भागवत ने कहा था कि हात्मा गांधी का यह विचार कि ब्रिटिश शासन से पहले भारतीयों में एकता का अभाव था, औपनिवेशिक शिक्षा से प्रेरित एक गलत विमर्श है। भागवत ने नागपुर में राष्ट्रीय पुस्तक महोत्सव में कहा, ‘‘गांधीजी ने (अपनी पुस्तक) हिंद स्वराज में लिखा है कि अंग्रेजों के आने से पहले हम एकजुट नहीं थे, लेकिन यह उनके द्वारा हमें सिखाई गई झूठी कहानी है।’’ गांधीजी द्वारा 1908 में गुजराती में लिखी गई और 1909 में उनके द्वारा अंग्रेजी में अनुवादित ‘हिंद स्वराज’ में 20 अध्याय हैं और यह पाठक और एक सम्पादक के बीच बातचीत की शैली में लिखा गया है। भागवत ने कहा कि भारत की 'राष्ट्र' की अवधारणा प्राचीन और पश्चिमी व्याख्याओं से मूलतः भिन्न है।

 

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